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मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है

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"प्रतीक्षा के बाद बची हुई असीमित संभावना"...यही! बिलकुल यही सात शब्द, बस! अगर शब्दों का अकाल पड़ा हो मेरे पास और बस एक पंक्ति में "मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है"के पन्नों में संकलित कविताओं को समेटना हो तो बस ये सात शब्द लिख कर चुप हो जाना चाहूँगा कि रश्मि भारद्वाज की कवितायें प्रतीक्षा-के-बाद-बची-हुई-असीमित-संभावनाओं की कवितायें हैं। कवि के ही मिसरे को उधार लेकर कवि की कविताओं को परिभाषित करना कितना उचित है, बहस का विषय हो सकता है बेशक...लेकिन बहसें शुद्धतावादियों और आलोचकों का शग्ल ठहरीं। मैं विशुद्ध रूप से पाठक हूँ और दशक भर से हिंदी साहित्य की लगभग हर पत्र-पत्रिकाओं और ज्ञानपीठ से आये पहले कविता-संग्रह "एक अतिरिक्त अ"में देखते-पढ़ते-गुनते, रश्मि भारद्वाज की कविताओं का आशिक़। 


एक ग़ज़ब का 'पोयेटिक इज़'और एक अजब सा 'रिदमिक सॉफ्टनेस'...रश्मि की कविताओं में मिसरा दर मिसरा तारी रहता है। कहीं भी मह्ज़ बात कहने के लिये कहन का बनावटीपन ओढ़ते नहीं नज़र आती हैं वो। सहजता ऐसी कि पढ़ते हुए पाठक मन अनायास ही कविता के पार्श्व तक पहुँच जाता है बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के... सरे-आईना-मेरा-अक्स-है-पसे-आईना-कोई-और-है की दुविधा से एकदम परे। 

रश्मि भारद्वाज की कविताई बड़ी बेबाक़ी से यह स्वीकार करती है कि कठोर होने के बाद भी वो निष्ठुर कभी न हो सकी। समस्त घृणाओं के मध्य अक्षुण्ण रह गये क्षमा भाव और छल-प्रपंचों के बीच भी बचे रह गये भरोसे ने उन्हें कम दुनियावी ज़रूर बनाये रखा हो, लेकिन कविता पर कोई आँच नहीं आने दिया। कविता का यही बचा रह जाना रश्मि को समकालीन हिंदी साहित्य का एक ना-नज़रअंदाज़ किये जा सकने वाला हस्ताक्षर बनाता है। 

रश्मि की कविताओं में जहाँ दो शहरों के पहचान की कश्मकश वाली पीड़ा का बखान अपनी पीढ़ी को नया आख्यान सौंपता है, वहीं अपने पुरखों की अनसुनी प्रार्थनाओं की शिनाख़्त कविताई विरासत को भी नया स्वर देती है। घर की दरकती दीवारों को देखकर काँपती हुई हमारी 'लोकल'कवि पेपर-टाउन का ज़िक्र करते ही एकदम से 'ग्लोबल'हो जाती हैं। रश्मि भारद्वाज का यह 'रीच'उन्हें हिंदी कविता का महज एक और 'स्त्री-स्वर'नहीं रहने देता(जैसा कि हाल-फिलहाल में किसी की टिप्पणी ऐसा कुछ कहने की कोशिश कर रही थी रश्मि की कविताओं के संदर्भ में), बल्कि उनकी समकालीनता को एक अतिरिक्त विस्तार देता है।

इस किताब की कितनी ही कविताओं का बार-बार पाठ किया है कि उन सबका ज़िक्र करना जैसे उन कविताओं को थपकियाँ देने जैसा है कि इस बारम्बार पाठ से थक तो नहीं गयीं ये...अब चाहे वो "एक स्त्री का आत्म संवाद"हो या फिर "पक्षपाती है ईश्वर"हो या...या फिर "वयस में छोटा प्रेयस हो"और या फिर "पति की प्रेमिका के नाम"। जहाँ केदारनाथ सिंह जी की स्मृति में कही गयी कविता तमाम स्मृति-शेष कविताओं की शृंखला में एक युवा कवि का अपने वरिष्ठ को दी गयी कविताई-श्रद्धांजलि का जैसे 'एपीटमी'सा कुछ है...वहीं अनामिका जी पर की नन्हीं सी कविता समकालीन अग्रजा की ओर उलीचा गया एक अद्भुत 'एक्लेम'।

किताब की समस्त कविताओं का ज़िक्र करने बैठूँ(जो कि मेरा कविताशिक़ मन बेतरह करना चाहता है) तो बौराये वक़्त के बेतहाशा लम्हे मुझ पर बेरहमी से टूट पड़ेंगे। आख़िर में बस एक पसंदीदा कविता की चंद पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहता हूँ कि जिनसे जितनी बार गुज़रता हूँ, उतनी बार हाँट करती हैं ये आत्मविश्लेषण करने को विवश करती हुईं...

"एक पुरुष लिखता है सुख
वहाँ संसार भर की उम्मीद समायी होती है
एक स्त्री ने लिखा सुख
यह उसका निजी प्रलाप था

एक पुरुष ने लिखा प्रेम
रची गयी एक नयी परिभाषा
एक स्त्री ने लिखा प्रेम
लोग उसके शयनकक्ष का भूगोल तलाशने लगे

एक पुरुष ने लिखी स्त्रियाँ
ये सब उसके लिये प्रेरणाएँ थीं
एक स्त्री ने लिखा पुरुष
वह सीढ़ियाँ बनाती थी"




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