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Channel: पाल ले इक रोग नादां...
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छबीला रंगबाज़ का शहर

इक शहर खुलता है अपने पूरे विस्तार में...पन्नों पर बिखरे काले हर्फ़ों से निकल कर अपने चंद अजब-ग़ज़ब से किरदारों को संभाले, जो कतई तौर पर उस शहर से संभाले नहीं संभल रहे होते,...और इन तमाम असंभाल ‘संभालों’...

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हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज

हमारी नयी किताब आयी है | कहानियों की पहली किताब | हिन्दी-साहित्य में सेना और सैनिक हमेशा से एक अछूता विषय रहा है | गिनी-चुनी कहानियाँ हैं सैन्य-जीवन पर...गिने-चुने उपन्यास हैं | एक अदनी सी कोशिश है उसी...

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मेरे साथ ही साथ बड़ा हो गया है मेरा डर

[ कथादेश के फरवरी 2018 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी"का बारहवाँ पन्ना ]नये साल के मचलते यौवन की शरारत कुछ इस क़दर सर चढ़ कर बोलने लगी थी कि मौसम ने एकदम से गंभीर अभिभावक वाला चोगा पहन लिया है और...

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अजब हैंग-ओवर है सूरज पे आज...

गुज़र जाएगी शाम तकरार में चलो ! चल के बैठो भी अब कार में अरे ! फ़ब रही है ये साड़ी बहुतखफ़ा आईने पर हो बेकार में तुम्हें देखकर चाँद छुप क्या गयाफ़साना बनेगा कल अख़बार मेंन परदा ही सरका, न खिड़की खुलीठनी...

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क़िस्सागोई करती आँखें

ग़ज़ल जैसी विधा के साथ जिस तरह का सौतेला सलूक होता आया है इस हिन्दी-साहित्य में, उस बिना पर किसी युवा रचनाकार द्वारा इस विधा को अपनाने के निर्णय पर कई सवाल उठते हैं मन में | पाठकों, लेखको और आलोचकों...

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चोट की हर टीस अब तो इक नयी सिसकी हुई...

ठक-ठक...ठक-ठक ! उम्र की नयी दस्तक सुनवाता हुआ मार्च का महीना हर साल कैसी-तो-कैसी अजब-ग़ज़ब सी अनुभूतियों की बारिश से तर-बतर जाता है पूरे वजूद को | शायद जन्म-दिवस वो इकलौता उपलक्ष्य होता है, जब हम किसी...

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बर्थ नंबर तीन...

हावड़ा से आने वाली राजधानी एक्सप्रेस ग़ज़ब ही विलंब से चल रही थी | इस बार की आयी बाढ़ कहीं रस्ते में रेल की पटरियों को भी आशिंक रूप से डुबो रही थी तो इस रस्ते की कई ट्रेनें धीमी रफ़्तार में अपने गंतव्य तक...

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बत्तीस साल बहुत से सवालों की उम्र होती है...

[ कथादेश के जून 2018 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी"का पंद्रहवाँ पन्ना ]इन्द्रजीत...लांस नायक इन्द्रजीत सिंह नहीं रहा | बटालियन के समस्त जवानों को यहाँ इस ढ़ाई साल की तयशुदा तैनाती के बाद वापस सकुशल...

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कंचन सिंह चौहान की कहानी 'ईज़’ को पढ़ते हुये...

केमिस्ट्री दोनों किरदारों के बीच शुरू के ही संवाद से शुरू हो जाती है...एक अजब सी कशिश और कसमसाहट भरी केमिस्ट्री, जो पाठकों को थोड़ी सी तिलमिलाती हुई छोड़ देती है आख़िर में कि कुछ तो हुआ ही नहीं | लेकिन...

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भय को देखना हो नतमस्तक...

[ कथादेश के सितम्बर 2018 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी"का अठारहवाँ पन्ना ]अभी कुछ दिन पहले डायरी के किसी बेतरतीब पन्ने से उलझे हुये एक पाठक का बहुत ही तरतीब सा कॉल आया था |बहुत देर बात हुई उनसे और...

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एक ब्रह्मा का अवसान

"सुनो पीटर, हमारी मुहब्बत सलामत तो रहेगी ना ? उन्होंने ही तो संभाले रखा था अब तक, जब भी बिखरने को हुई ये !"परसों रात सुबकते हुये मेरी जेन ने पूछा था...लगभग सत्तावन साल पहले एक नये 'यूनिवर्स'का अस्तित्व...

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हाशिये का राग

विगत डेढ़-दो महीने से लगातार मुखड़े से लेकर आख़िरी अंतरे तक “हाशिये का राग” के साथ मैं संगत मिला रहा हूँ | सुर-ताल की ज्यादा समझ नहीं मुझे, लेकिन हँसी की थपकियों से लेकर गहरी-गहरी सोच वाली गुनगुनाहट के...

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कितनी तुम कि मैं न रहूँ...

कितनी दूरी ! दूरी...कितनी दूर ! कितना दर्द कि बस उफ़ अब ! कितना शोर कि बहरी हों आवाज़ें और कितनी चुप्पी कि बोल उठे सन्नाटा ! कितनी थकन कि नींद को भी नींद ना आए...आह,कितनी नींद कि सारी थकन कोई भूल जाए !...

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यह विदाई है या स्वागत...?

एक और नया साल...उफ़्फ़ ! इस कमबख़्त वक्त को भी जाने कैसी तो जल्दी मची रहती है |अभी-अभी तो यहीं था खड़ा ये दो हज़ार अठारह अपने पूरे विराट स्वरूप में...यहीं पहलू में तो था ये खड़ा ! अचानक से जैसे पलकें झपकते...

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अगर फ़िरदौस बर-रू-ए-ज़मीं अस्त

 उम्मीद के जाने कितने ही रंग सफ़ेद बर्फ़ के फ़ाहों, चिनार की हरी और भूरी पत्तियों और रसभरे सेबों की लालिमाओं से लिपट कर एक कोई और ही नया रंग ढूँढ निकालते हैं| सुहैल आया था मिलने…अपनी नयी महंगी बाइक को इस...

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मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है

"प्रतीक्षा के बाद बची हुई असीमित संभावना"...यही! बिलकुल यही सात शब्द, बस! अगर शब्दों का अकाल पड़ा हो मेरे पास और बस एक पंक्ति में "मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है"के पन्नों में संकलित कविताओं को समेटना...

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ये ग़ुस्सा

यह ग़ुस्सा कैसा ग़ुस्सा हैयह ग़ुस्सा कैसा कैसा हैयह ग़ुस्सा मेरा तुझ पर हैयह ग़ुस्सा तेरा मुझ पर हैये जो तेरा-मेरा ग़ुस्सा हैयह ग़ुस्सा इसका उसका हैयह ग़ुस्सा किस पर किसका हैयह ग़ुस्सा सब पर सबका हैयह...

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मल्लिका - मनीषा कुलश्रेष्ठ

 पौ फटते ही कुहासे को चीर कर आती हुई ठाकुरद्वारे की घंटी की मद्धम सी आवाज़ जैसे गलियों से गुज़रती हुई घर की ड्योढ़ी तक पहुँचती है और अपनी पवित्र गूंज से सुबह होने का ऐलान करती है हर रोज़, ‘मल्लिका’ कुछ यूँ...

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किसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं

 थपेड़े समन्दर के सहता हुआ मैंकिसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं दीवारों सी फ़ितरत मिली है मुझे भीकि रह कर भी घर में न रहता हुआ मैं धुआँ है या शोला, जो दिखता ग़ज़ल मेंसुलगती कहानी है...कहता हुआ मैं उधर हैं वो...

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चुप गली और घुप खिडकी

एक गली थी चुप-चुप सी इक खिड़की थी घुप्पी-घुप्पी इक रोज़ गली को रोक ज़रा घुप खिड़की से आवाज़ उठीचलती-चलती थम सी गयी वो दूर तलक वो देर तलकपग-पग घायल डग भर पागलदुबली-पतली वो चुप-सी गलीघुप खिड़की ने फिर उस से...

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